Modinagar ।  विधानसभा चुनाव कोरोना संक्रमण की छाया में संपन्न हो रहे हैं, जिसके चलते रैली, जनसभा पर रोक लगी हुई है। इससे चुनावी फिजा परवान नहीं चढ़ रही है। चैराहों, सड़क, गली मुहल्लों और चैक पर चुनाव के रंग न दिखने से पहले जैसी न हनक हैं और न ही खनक। वर्चुअल रैली व बैठकों का शोर भी राजनैतिक सरगर्मियों का रंग चटक नहीं कर पा रहा, और इस प्रक्रिया में 10 फरवरी को मतदान होगा।
नामांकन के दौरान कोई भी प्रत्याशी जुलूस नहीं ले जा सके, इससे शहर के गली मुहल्लों, चैराहों से लेकर गांव की चैपाल पर चर्चा भी माहौल को पूरी तरह से राजनीतिक नहीं बना पा रहा है। उम्मीदवार चंद लोगों के साथ घर-घर जाकर जनसंपर्क में लगे हैं। मगर न तो नारेबाजी करने वाले की फौज उनके पीछे है और न ढोल नगाड़े। पोस्टर और चुनाव चिंह का खुलकर प्रचार भी इस बार नहीं है।
कोविड-19 प्रोटोकाल का उल्लंघन भी मुकदमा दर्ज कराने में अहम भूमिका निभा रहा है। नेताओं के चेहरों पर लगा मास्क कोविड-19 की गंभीरता ब्यां कर रहा है। सारा चुनावी शोर और जोड़-तोड़ इंटरनेट मीडिया और अन्य साइट पर हावी है। मगर आज के दौर में बहुतायत में नागरिक एंड्राइड मोबाइल फोन और इंटरनेट सेवा के प्रयोग से अंजान है। इस दौर में युवा वर्ग ही इंटरनेट मीडिया पर चल रहे चुनावी समय में नारे और गानों का आनंद ले रहे हैं। बुजुर्ग मतदाताओं की समझ में नहीं आ रहा है कि यह कैसा चुनावी दौर है, जिसमें न भोपू का शोर है और न फिर प्रचारकों की टोली। जो कुछ है वह मोबाइल और कंप्यूटर स्क्रीन पर ही दिख रहा हैं। प्रत्याशियों और दलों के दिग्गजों को भी रैली जनसभा चौपाल पर रोक अंदर तक खल रही है।
इंटरनेट के दौर में भी प्रत्याशियों को जाना होगा बुजुर्गों के पासः
चुनावी दौर चल रहा है हर एक उम्मीदवार इंटरनेट मीडिया का सहारा ले रहा है। मगर बुजुर्गों के पास वोट की अपील करने के लिए खुद प्रत्याशी या उसके रिश्तेदार को जाना पड़ रहा है। क्योंकि आधुनिक युग में भी बुजुर्ग इंटरनेट मीडिया से अंजान हैं।
इन दिनों चुनावी शोर में नारे भी खूब गूंज रहे हैं। इनके बिना कोई चुनाव हुआ भी तो नहीं है। मंच पर नेता का भाषण और माइक से नारे। राजनीति में यही होता आया है। इस बार रैली, जनसभाएं तो नहीं हैं, लेकिन हर दल के प्रत्याशी के जनसंपर्क अभियान व नुक्कड़ सभाओं समर्थक पूरी गर्मजोशी से नारे लगा रहे हैं। दरअसल, नारे कोरे नारे नहीं होते। ये जनमानस पर गहरा असर छोड़ते हैं। दशकों पुराने नारे भी सामयिक लग रहे हैं। ये नारे पार्टी के गुणगान के साथ धार्मिंक रंग लिए हुए भी होते हैं। कुछ नारे पोस्टर व हार्डिंग पर भी नजर आ रहे हैं। देखना ये है कि चुनावी नारों से किस दल को कितना लाभ मिलता है। 
आइए, प्रमुख राजनैतिक दल व उनके नारों पर नजर डालें:
भाजपा के नारे
. चप्पा चप्पा-भाजपा।
. एक ही नारा एक ही नाम, जय श्रीराम
. जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे
. अबकी बार, फिर से भाजपा सरकार
. काम दमदार,सोच ईमानदार।
. यूपी फिर मांगे, भाजपा सरकार
सपा के नारे
. जय जय जय अखिलेश
. जय अखिलेश, तय अखिलेश
. यूपी कहे आज का, नहीं चाहिए, भाजपा
. बड़ों का हाथ, युवा का साथ
. चल पड़ी है लाल आंधी, आ रहे हैं समाजवादी
. चलती है साइकिल उड़ती है धूल, न रहेगा पंजा न रहेगा कमल का फूल
बसपा के नारे
. हर पोलिंग बूथ को जिताना है, बसपा को सत्ता में लाना है
. 10 मार्च, सब साफ, बहनजी हैं यूपी की आस
. जाति पे न पाती पे, बटन दबेगा हाथी पे
. चलता है हाथी उड़ती है धूल, न रहेगा हाथ का पंजा, न साइकिल और न फूल
काग्रेस के नारे
. जात पे ना पात पे, वोट पड़ेगी हाथ पे, पहले मुहर लगेगी हाथ पे
. लड़की हूं, लड़ सकती हूं
. गली-गली में नारा हैए (प्रत्याशी का नाम) हमारा है।
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि जनता को भावावेश में लाने, उत्तेजित व उत्साहित करने के लिए राजनैतिक दलों की तरफ से नारे दिए जाते हैं। इनका क्षणिक असर भी दिखाई देता है। सच्चाई ये है कि ज्यादातर नारे दुष्प्रचार से भरे व मिथ्या होते हैं। फिर भी राजनैतिक दल नारों का सहारा लेते रहे हैं। अब जनता में जागरूकता आ रही है, उसे नारों से नहीं बहकाया जा सकता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *