Kashmir – धरती का स्वर्ग कहलाने वाला कश्मीर अब पर्यावरण में बदलाव से जूझ रहा है। यहां बर्फबारी कम हो रही है और तापमान बढ़ रहा है। इससे जहां पानी का संकट खड़ा होने के आसार बन गए हैं, तो वहीं घाटी की पहचान रही सेब की फसल पर भी खतरा मंडरा रहा है। इससे घाटी की अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान हो सकता है। एक्सपर्ट इसके लिए ‘क्लाइमेट चेंज’ और ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ को जिम्मेदार मान रहे हैं।
मौसम विभाग के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में तापमान पिछले 100 सालों में 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जो दुनिया के एवरेज टेंपरेचर के मुकाबले 0.2 से 0.3 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। घाटी में पिछले चार दशकों में बर्फबारी में भी लगातार कमी दर्ज की गई है।
पिछले 20 साल में जम्मू-कश्मीर में चार चिल्लई कलां बर्फ के बिना गुजरे हैं। इनमें से ज्यादातर 2010 के बाद देखे गए हैं। चिल्लई कलां जम्मू-कश्मीर में 40 दिन के उस टाइम पीरियड को कहा जाता है, जिसमें बेहद तीखी ठंड पड़ती है। इसी दौरान सबसे ज्यादा बर्फबारी देखने को मिलती है।
आंकड़ों से पता चला है कि 2022 का मार्च पिछले सालों की तुलना में लगभग 10 डिग्री गर्म रहा है। वहीं, कश्मीर में 3000 मीटर से नीचे के लगभग सभी लैंडस्केप पर वर्तमान में बर्फ नहीं है। ग्रोइनफॉरमैटिक्स विभाग के सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. इरफान राशिद ने बताया कि यह शुरुआती वसंत स्नोमेल्ट की ओर इशारा करता है। इससे स्प्रिंग सीजन में नदियों में पानी बढ़ सकता है, लेकिन आने वाली गर्मियों यानी जुलाई, अगस्त और सितंबर में जल संकट पैदा हो सकता है। इसका सीधा असर किसानों पर पड़ेगा।
डॉ. इरफान ने बताया कि कश्मीर की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर है। लगभग 70% आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि और उससे जुड़े व्यवसायों से अटैच है। ग्लेशियरों में निरंतर गिरावट आने वाले सालों में पूरे भारतीय हिमालयन रीजन को प्रभावित कर सकती है। इससे कृषि उत्पादन में कमी, हाइड्रोपॉवर जनरेशन में गिरावट, पीने के पानी की कमी और विंटर टूरिज्म में गिरावट आ सकती है।
कश्मीर विश्वविद्यालय की एक स्टडी से पता चला है कि कश्मीर के पॉपुलर फूल गुलतूर (स्टर्नबर्गिया वर्नालिस) के खिलने के टाइम में बदलाव हुआ है। यह आमतौर पर मार्च और अप्रैल में खिलता है। पिछले 10 सालों में यह जनवरी के अंत या फरवरी की शुरुआत में खिल रहा है। वहीं, कश्मीर विश्वविद्यालय में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर और बॉटनिस्ट डॉ. अंजार खुरू ने बताया कि मार्च में गर्म क्लाइमेट ने कई तरह के फूलों को 10 से 15 दिनों के लिए खिलने से रोक दिया है। हालांकि, इस पर अध्ययन किया जाना बाकी है।
कश्मीर के शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के फ्रूट साइंस डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अब्दुल रऊफ मलिक ने कहा कि कश्मीर के साथ-साथ भारत के दूसरे पहाड़ी राज्यों में पारंपरिक सेब की खेती क्लाइमेट चेंज के कारण प्रभावित हो रही है। इसमें समय से पहले फसल का पकना और कीड़ों के हमले शामिल हैं।
एक स्टडी का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि हिमाचल प्रदेश में कुल्लू सेब की खेती के लिए जाना जाता है, लेकिन पिछले 20 सालों में कम बर्फबारी के कारण सेब की खेती प्रभावित हुई है। सिंचाई के पानी की कमी के कारण उपज में लगभग 80% की कमी का अनुमान है। सेब की ज्यादातर किस्मों को 1000-1600 घंटे 7.2 डिग्री सेल्सियस पर या उससे कम ठंड की जरूरत होती है।
डॉ. इरफान ने कहा कि हाल ही में की गईं स्टडीज में हिमालय सहित दुनिया के पहाड़ी इलाकों में वॉर्मिंग बढ़ने के संकेत मिले हैं। एक स्टडी में तो कहा गया है कि वॉर्मिंग की दर ऊंचाई के साथ बढ़ जाती है।
डॉ. इरफान ने कहा कि एलिवेशन-डिपेंडेंट वॉर्मिंग (EDW) माउंटेन इकोसिस्टम, क्रायोस्फेरिक सिस्टम, हाइड्रोलॉजिकल रजीम और बायोडायवर्सिटी में बदलाव को तेज कर सकता है। उन्होंने बताया कि ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के बायर्ड पोलर एंड क्लाइमेट रिसर्च सेंटर के रिसर्च साइंटिस्ट डॉ. पाओलो गैब्रिएली ने अपनी टाइमलाइन पर अंटार्कटिक रीजन में बढ़ते तापमान का जिक्र किया है। उन्होंने इसे बड़ा बदलाव करार दिया है। तापमान -50 या -60 डिग्री सेल्सियस होने की बजाय शून्य या 10 डिग्री के करीब है। अंटार्कटिक मानकों के अनुसार, यह बहुत बड़ा बदलाव है।