अक्का महादेवी भगवान शिव की अनन्य भक्त और कन्नड़ भाषा की महान कवयित्री थीं. वे कन्नड़ साहित्य के प्रारंभिक कवियों में से एक थीं. और 12वीं शताब्दी में लिंगायत शैव संप्रदाय की एक प्रमुख व्यक्ति थीं. उनकी कविताओं को वचन कविता या वचन साहित्य कहा जाता है. उन्होंने 430 वचन कविताएं और मंत्रोगोप्य तथा योगांगत्रिविध नामक दो लघु रचनाएं कीं. मंत्रोगोप्य तथा योगांगत्रिविध को कन्नड़ साहित्य में उनका सबसे उल्लेखनीय योगदान माना जाता है.
कन्नड़ भक्ति आंदोलन के महान संत बसवन्ना, सिद्धराम और अल्लामप्रभु ने उन्हें अक्का यानी बड़ी बहन नाम दिया था. अक्का महादेवी चेन्ना मल्लिकार्जुन यानी भगवान शिव को अपना पति मानती थीं. उन्होंने खुद को भगवान शिव के लिए समर्पित कर दिया और मल्लिकार्जुन को संबोधित करते हुए ही उन्हें कविताएं लिखीं. उन्होंने भगवान शिव की अराधना के लिए वस्त्रादि का त्याग कर दिया. वे केवल अपने लंबे केशों से अपने शरीर को ढक कर रहा करती थीं और सत्संग किया करती थीं. अक्का महादेवी का तमाम साहित्य कन्नड़ भाषा में है. इसका सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ है.
राजकमल प्रकाशन से उनकी रचनाओं पर एक पुस्तक ‘तेजस्विनी अक्का महादेवी के वचन’ प्रकाशित हुई है. पुस्तक में वरिष्ठ लेखिका गगन गिल ने अक्का महादेवी के वचनों का हिंदी में भाव रूपांतरण किया है.
अक्का महादेवी के बारे में गगन गिल लिखती हैं कि अक्का महादेवी कवि नहीं थीं, उन्होंने हमारे-आपके लिए कविताएं नहीं लिखी थीं. भक्ति करती हुईं वह देश और काल को पार कर गईं.
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गगन गिल पुस्तक की भूमिका में लिखती हैं- “परंपरा कहती है, वह अनन्य सुंदरी थीं. संभव है, यह बात उनकी कठिन नियति को देख कर कही जाती हो. मनुष्य सुंदरता सहन करने के लिए नहीं बने. सुंदरता उनमें सदा से हिंसा जगाती आई है. तिस पर एक स्त्री की सुंदरता, भक्त मन वाला उसका आलोक, उसकी आभा, उसकी तन्मयता!
सुंदरी महादेवी को कभी न कभी वेध्य होना ही था. वह बारहवीं सदी की बजाय इक्कीसवीं सदी में रही होतीं, तब भी उन्हें इस नियति से कोई बचा नहीं सकता था. लेकिन उन्हें किसी दूसरे ने नहीं वेधा. यह उपक्रम उन्होंने स्वयं ही किया.
ऐसा नहीं कि उनके छोटे से अट्ठाईस-तीस साल के जीवन में उन्हें वेधने के प्रयास न हुए होंगे. उनकी कविताओं में पुरुष व्यवहार की कुरूपता के, छेड़खानी के वर्णन हैं (ओ भाई, तुम उसका यौवन, उसके गोल स्तन देख उसके पीछे आ गये हो) से लेकर जोर-जबरदस्ती तक के विवरण.
किसे परवाह है
कौन तोड़ता है पेड़ से पत्ती
एक बार फल टूट जाने के बाद?
किसे परवाह है
कौन जोतता है जमीन
त्याग दी जो तुमने?
किसे परवाह है
कौन सोता है उस स्त्री के साथ
जिसे छोड़ दिया तुमने?
एक बार प्रभु को जान लेने के बाद
किसे परवाह है,
कुत्ते खाते हैं इस देह को
या गलती है यह पानी में?
—
भैया, तुम उसके पीछे-पीछे
यहां तक चले आए
उसके उन्नत स्तनों से
छलकते यौवन ये वशीभूत
तुम यहां तक चले आए
भैया
न मैं स्त्री हूं,
न वेश्या
जब तुम देखते हो मुझे टकटक,
समझ पाते हो कुछ?
सब मुख पराये हैं,
मेरे लिए
एक मल्लिकार्जुन प्रभु के सिवा।
महादेवी ने अपनी सुंदरता का वध स्वयं किया, भक्ति में देह का अतिक्रमण. उन्होंने पंच तत्वों के खेल को समझा, साकार से प्रेम किया और निराकार में लीन हुईं. पूर्ण-तत्व को उन्होंने पा लिया था, साध लिया था, इसके पर्याप्त संकेत उनके वचनों में हमें मिलते हैं.
ये जो उनके वचन हमें आज व्याकुल कर देते हैं, ये उनके बोल, जो कभी उन्होंने लिखे नहीं थे, सुधारे या काटे-छांटे नहीं थे. उनके दिल की अग्नि ने इन्हें तपाया था, स्ववचनों को, एकालापों को. कब ये वचन उनके दिल के एकांत से निकल कर सुनने वालों के दिलों में धड़कने लगे, मूल कन्नड़ भाषा में ही नहीं, पड़ोस के मलयाली व तेलुगु भाषाई दिलों में भी, कौन कह सकता है.”
अक्का महादेवी ने शिव को अपना सर्वस्व सौंप दिया. वह देह से परे हो गई थीं. इस शरीर को वह प्रभु मिलन में बाधा मानती हुई कहती हैं-
जैसे रेशम का कीड़ा
बुनता है अपना घर
सप्रेम अपनी ही मज्जा से
और मर जाता है
अपनी देह से लिपटे
वैसे मैं जलती हूं
अपनी देह की इच्छा में
चीर डालो, ओ प्रभु
कामना से भरा मेरा हृदय।
—
चार पहर दिन के
मैं तुम्हारे शोक में रहती हूं
चार पहर रात के
तुम्हारे लिए बौराई
पड़ी रहती हूं दिन-रात
खोई और बीमार
ओ मल्लिकार्जुन!
जब से पनपा
तुम्हारा प्रेम
भूल गई में
भूख, नींद और प्यास।
—
एक नहीं, दो नहीं, न तीन या चार
चौरासी लाख योनियों में से आई हूं मैं,
निकल कर आई हूं
असम्भव संसारों में से
कभी आनन्द पिया,
कभी पीड़ा,
जो भी थे मेरे पूर्वजन्म
दया करो,
आज के इस दिन
ओ मल्लिकार्जुन!
अक्का महादेवी का जन्म कर्नाटक में शिवमोगा के पास उडुताड़ी गांव में हुआ था. उनके जन्म का समय लगभग 1130 ई. माना जाता है. उनके पिता निर्मलशेट्टी और माता सुमति भगवान शिव की परम भक्त थीं. उन्होंने अपनी बेटी को भी शिव भक्ति के मार्ग पर चलने की दीक्षा दी. महादेवी भगवान शिव से इतनी प्रभावित थीं कि वे उन्हें चेन्न मल्लिकार्जुन यानी चमेली के फूलों के समान सुंदर प्रभु कहकर संबोधित करती थीं. वे शिव भक्ति में ऐसी लीन हो गईं कि उन्होंने शिव को अपना पति ही मान लिया. जैसे मीरा ने कृष्ण को अपना पति माना.
महादेवी के बारे में विस्तार से वर्णन करती हुईं गगन गिल लिखती हैं- महादेवी भक्तिन थीं मगर युवती थीं, सुंदरी थीं. उनके भीतर का संतत्व ऐसे विकट रास्ते बाहर आएगा, यह अकल्पनीय है. तब भी, आज भी.
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किंवदंती है कि सोलह वर्षीया महादेवी का विवाह स्थानीय जैन राजा से हुआ था, जो उन्हें नदी तट पर पूजा में मगन देख उन पर मोहित हुआ था. महादेवी ने विधर्मी से विवाह पर अपनी कुछ आशंकाएं रखी थीं, कुछ शर्तें, कि राजा कभी उनकी पूजा-अर्चना में अड़चन नहीं डालेगा, उन्हें अपने गुरुजनों, सत्संगियों से मिलने देगा आदि. राजा मान गया था और विवाह सम्पन्न हो गया था.
एक-दो वर्ष में ही धीरे-धीरे सब शर्तें टूटने लगीं. महादेवी को घर छोड़ना पड़ा. घर छोड़ने की घटना बड़ी ह्रदयविदारक है.
रोज की तरह उस दिन भी महादेवी पूजा में बैठी थीं, सद्यस्नाता, जब राजा, उनका पति, उन्हें देख ऐसा कामातुर हुआ कि उसमें पूजा समाप्त होने तक का धैर्य न रहा. उसने आकर महादेवी का वस्त्र खींच दिया और वस्त्र खुल गया. महादेवी का ध्यान भंग हो गया. महादेवी ने उघड़े शरीर की ओर संकेत कर उसे धिक्कारा, क्या इस देह के लिए तुमने मुझे ऐसा व्यथित किया है? पति ने कहा, तुम अब मेरी संपत्ति हो, तुम्हारे वस्त्र और आभूषण भी. अब मैं जो चाहूं, तब कर सकता हूं.
महादेवी जैसी खड़ी थीं, वैसी बाहर निकल आईं, निर्वसन. किंकर्तव्यविमूढ़. महल से सड़क पर, सड़क से देश में.
उसके बाद जीवन भर, भले वह उनका छोटा-सा जीवन था, उन्होंने कोई आवरण नहीं लिया. बस उनके लंबे केशों ने उन्हें ढंका, उनकी नग्न, युवा, स्त्री-देह को, जितना यह संभव था. उसी निरावरण देह ने शिव-तत्व की खोज-यात्रा आरंभ की. स्वयं का वध किया.
महादेवी ने अल्लामा प्रभु के ‘अनुभव-मंडप’ के बारे में सुन रखा था. उनके स्थान से आठ सौ किलोमीटर दूर वह स्थान था. महीनों पैदल चल कर, भिक्षा मांगतीं, फब्तियां सुनतीं, तिरस्कार सहतीं, वह वहां पहुंचीं. आज के बीदर कल्याण स्थान में, शिव की महिमा सुनने.
मगर शिवत्व की प्राप्ति संभवत: उन्हें बीच रास्ते ही कभी हो गई थी. उनकी आंतरिक शारीरिक रचना बदल गई थी, मासिक धर्म रुक गया था. काया-छिद्रों में से राख की विभूति निकलनी शुरू हो गई थी. रहस्यवादी इसे शिव से मिलन की उच्च अवस्था का संकेत मानते थे. महादेवी के वचनों में इस विकट यात्रा की अनेक छवियां मिलती हैं.
जब वह अनुभव मंडप के करीब पहुंचीं, हड़कंप मच गया. भभूत से ढंकी एक नग्न स्त्री चली आ रही थी. उनका रास्ता रोकने की कोशिश हुई. असफल. फिर अनुभव-मंडप के एक भक्त बोमैया ने उन्हें रोक कर उनकी शारीरिक जांच की. बाकायदा उनकी योनि तक. वहां भी भभूत मिली.
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ये सब दिल दहला देने वाला वृतांत दो सौ साल बाद चौदहवीं शताब्दी में लिखे गये ग्रंथ ‘शून्य संपादने’ में अंकित है.
तब जाकर उन्हें अनुमति मिली, अनुभव मंडप में अल्लामा प्रभु के समक्ष उपस्थित होने की. वहां भी अल्लामा प्रभु ने कठोर प्रश्नों से उनकी कड़ी परीक्षा ली. अंत में पूछा, जब तुमने आवरण छोड़ ही दिया है तो केशों से क्यों ढंके हुए हो? महादेवी ने उत्तर दिया, मैं तैयार हूं प्रभु, मगर आप अभी उस दृश्य के लिए परिपक्व नहीं.
सारी सभा उनके आगे नतमस्तक हो गई. बासवन्ना ने उन्हें नाम दिया, अक्का. दीदी.
उसके बाद से ही वह अक्का महादेवी कहलाईं.
शिव भक्ति में लीन अक्का महादेवी भूख, प्यास और आवास से दूर हो गईं. वे पूरी तरह से कुदरत में विलीन हो गई थीं. वे हमेशा अपने मल्लिकार्जुन के संग रहती थीं. जहां जो मिलता खा लेतीं. किसी मंदिर के खंडहर या गुफा आदि में विश्राम कर लेतीं और दिन-रात भगवान शिव की भक्ति में लीन रहतीं.
भूख के लिए
गांव का दिया भिक्षा-दान
प्यास के लिए
नदियां, कुएं, तालाब
सोने के लिए
मंदिरों के खंडहर
आत्मा के संग को
तुम मेरे पास
ओ मल्लिकार्जुन!
‘तेजस्विनी अक्का महादेवी के वचन’ पुस्तक में दिए गए वचनों के माध्यम से अक्का महादेवी, उनके संघर्ष और उनकी भक्ति को भली-भांति समझा जा सकता है. निश्चित ही यह पुस्तक संग्रहणीय है. इससे हमें लिंगायत शैव संप्रदाय के महान संतों के बारे में भी जानकारी मिलती है.
पुस्तकः तेजस्विनी अक्का महादेवी के वचन
भाव रूपांतणः गगन गिल
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 250 रुपये
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Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature
FIRST PUBLISHED : July 12, 2023, 16:07 IST