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Dagna superstitious death of two children due to malpractice in shahdol read ground report

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Dagna superstitious death of two children due to malpractice in shahdol read ground report

शहडोल. मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य इलाकों में दगना कुप्रथा ने अपनी जड़ें मजबूत कर रखी हैं. जमीनी स्तर पर दगना को लेकर कई सामाजिक कुरीतियां हैं. ये बेहद अमानवीय है. इसमें बच्चों की मौत तक हो जाती है. अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग मान्यताएं हैं. हालात तो यहां तक हैं कि नवजातों के अलावा बड़े बुजुर्ग भी गर्म लोहे, काली चूड़ी और नीम के डंठल से आज भी खुद को दागते हैं. उनका दावा है उनके शरीर का कष्ट इससे दूर हो जाता है. इस सामाजिक कुप्रथा की पड़ताल करने न्यूज 18 की टीम उन प्रभावित गांवों में पहुंची, जहां 2 मासूमों की मौत दागने के कारण हुई थी. पड़ताल में दगना कुप्रथा से जुड़ी चौंकाने वाली जमीनी हकीकत सामने आई.

आदिवासी इलाकों में नवजातों को दागने की कुप्रथा दशकों पुरानी है. ठंड के समय जब नवजातों को निमोनिया या डबल निमोनिया हो जाता है, तब उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है. पेट दर्द, दस्त की शिकायत पर परिवार वाले नवजातों को ठीक करने के लिए इस कुप्रथा का सहारा लेते हैं. लोगों का मानना है दागने से उनके बच्चों की यह बीमारी ठीक हो जाएगी. जब नवजात को सांस लेने में तकलीफ होती है या दस्त के कारण उसके पेट की नसें बाहर दिखने लगती हैं, तब उन्ही नसों को गर्म लोहे की कील, काली चूड़ी या नीम या बांस की डंठल से दागा जाता है. यह काम गांव में रहने वाली विशेष समुदाय की महिलाएं करती हैं. इन महिलाओं को नवजातों की मालिश के अलावा दागने की जिम्मेदारी दी जाती है. काली चूड़ी से टोटका दूर होने की भी कुरीति चलन में है.

दगना के कारण दो मासूमों की मौत
दगना कुप्रथा के कारण 2 मासूमों की मौत के बाद प्रभावित गांवों में दहशत का माहौल है. दगना करने और करवाने वाले हर दिन पुलिस और प्रशासन के चक्कर काट रहे हैं. दिन भर गांव में प्रशासनिक अधिकारियों के दौरे से सड़कों पर धूल उड़ रही है. बाहर से आने वाले हर व्यक्ति पर ग्रामीणों की नजर होती है. जैसे ही उनसे दगना कुप्रथा को लेकर कोई सवाल या जानकारी पूछी जाती है, सबका एक ही जवाब निकलकर सामने आता है. साहब इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं. जिस मासूम की मौत हुई उसके परिवार वाले शहडोल के चक्कर काट-काटकर अपनी बेगुनाही का सबूत दे रहे हैं. वहीं परदादी घर में अकेले बैठकर बच्चों के वापस आने का इंतजार कर रही है.

लोगों को जागरुक करने का प्रयास कर रहा प्रशासन
दगना कुप्रथा को लेकर बुजुर्गों में आज भी बड़ा विश्वास देखने को मिल रहा है. प्रशासन ने भले ही उन्हें जागरूक करने के लिए गांव में रैली और दीवारों पर नारे लिखवाए, लेकिन जो विश्वास उनके मन में बैठा है उसे बाहर निकलना बड़ी चुनौती है. गांव के बुजुर्गों का कहना है नवजातों के अलावा उनके शरीर में कोई दर्द, जोड़ों का दर्द समेत अन्य बीमारियों के इलाज के लिए उनके पास सबसे सटीक इलाज दागना ही होता है. इस कारण वो दागना करवाते हैं. गांवों में आज भी कई बुजुर्ग ऐसे हैं जिनके शरीर में दगना के निशान देखने को मिल रहे हैं. सामतपुर में रहने वाली मठ्ठी चौधरी अपने पैर के घुटने को दिखाते हुए बताती हैं कि  घुटने में बहुत दर्द रहता था. अस्पताल के खूब चक्कर लगाए लेकिन दर्द ठीक नहीं हुआ. अंत में खुद से गर्म काली चूड़ी से खुद के पैर के घुटने को दाग लिया. दागने के निशान आज भी अपना जख्म बयां कर रहे हों.

प्रशासन के जागरुकता अभियान का कोई असर नहीं हो रहा
सामतपुर में रहने वाली फूलबाई ने अपने पेट के निशान दिखाते हुए बताया कि जब मैं छोटी थी तब मुझे भी मेरे परिवार वालों ने बीमार होने पर दगवाया था. प्रभावित गांव का दौरा करने के बाद यह तथ्य सामने आया कि जिला प्रशासन के जागरूकता अभियान का कोई असर इनके बीच देखने को नहीं मिल रहा है. मौत के बाद पुलिस के कारण दहशत जरूर है, लेकिन दागना के प्रति आदिवासी समुदाय की आस्था अब भी बरकरार है.

पांच साल में लगभग 4 हजार बच्चे कुप्रथा का शिकार
हालात इतने भयावह हैं कि शहडोल संभाग के तीन जिला शहडोल, उमरिया और अनूपपुर की स्थिति देखी जाए तो पिछले 5 साल में तीनों जिलों से लगभग 4 हजार बच्चे दगना कुप्रथा का शिकार हो चुके हैं. इनमें से लगभग 2 दर्जन बच्चे अपनी जान तक गंवा चुके हैं. बावजूद इसके यह कुप्रथा रुकने का नाम नहीं ले रही. जिला प्रशासन भी औपचारिकता पूरी करते हुए जागरूकता अभियान चलाने का प्रयास हो या धारा 144 लागू करने का आदेश सब करता है. महिला बाल विकास हो या स्वास्थ्य विभाग के मैदानी कर्मचारियों की ड्यूटी होती है कि वो नवजातों की देखरेख करें, समय पर टीका लगवाने के अलावा इनके पोषण आहार तक की व्यवस्था करें. सरकारी कर्मचारियों की तैनाती के बाद भी दगना कुप्रथा आज भी चलन में है.

 

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